भारत पाकिस्तान युद्ध में वीरगति मिलने के बाद भी कैप्टन अमित की लड़ाई खत्म नहीं हुई। बल्कि यहां से उनके लिए एक नई जंग शुरू हुई। दरअसल, मुश्किल भरे हालातों की वजह से कैप्टन अमित का पार्थिव शरीर तुरंत नहीं मिल सका। 13 जुलाई 1999 को, यानी 57 दिन बाद, उनका पार्थिव शरीर युद्ध क्षेत्र से मिला। जिस समय भारतीय सेना के जवान उनके पार्थिव शरीर के पास पहुंचे, तो पाया कि कैप्टन अमित ने अपने हाथ में राइफल अभी भी मजबूती से थाम रखी थी। दरअसल यहां पर बात भारतीय सेना के कैप्टन अमित भारद्वाज की हो रही है। यह बात आज से करीब 26 साल पहले 1999 की है। उस दिन भी मई की 17 तारीख थी।
दुश्मन की गोलियों के बीच पीछे हटना आसान नहीं था
इसी दिन, कैप्टन अमित भारद्वाज को लेफ्टिनेंट कालिया और उनकी टीम को बचाने की जिम्मेदारी दी गई थी। जिम्मेदारी मिलते ही कैप्टन अमित 30 सैनिकों की टुकड़ी लेकर बजरंग पोस्ट की ओर बढ़ चले। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि दुश्मन की ताकत उनकी सोच से कहीं ज्यादा थी। संख्या में कम होने के बावजूद, अमित ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने तुरंत फैसला लिया कि अपनी टुकड़ी की जान बचाने के लिए पीछे हटना जरूरी है, ताकि और सैनिकों को बुलाया जा सके। लेकिन दुश्मन की गोलियों के बीच पीछे हटना आसान नहीं था। इसके लिए किसी को रुककर कवर फायर करना था।
लड़ाई में कैप्टन अमित और हवलदार राजवीर गंभीर रूप से हो गए जख्मी
कैप्टन अमित ने खुद यह जोखिम उठाया। वह आगे बढ़े और दुश्मन पर गोलियां बरसाने लगे। उनके साथ हवलदार राजवीर सिंह भी डटकर लड़े। दोनों ने मिलकर 10 से ज्यादा घुसपैठियों को मार गिराया। उनकी बहादुरी की वजह से 30 सैनिक सुरक्षित बेस कैंप तक पहुंच गए। लेकिन इस लड़ाई में कैप्टन अमित और हवलदार राजवीर गंभीर रूप से जख्मी हो गए। उन दोनों के शरीर में जब तक जान रही, वे दुश्मनों के लिए काल का पर्याय बने रहे। दोनों शूरवीरों ने अपनी अंतिम सांस तक लड़ाई जारी रखी और वीरगति को प्राप्त हो गए। कैप्टन अमित भारद्वाज उस वक्त सिर्फ 27 साल के थे, जब उन्होंने देश के लिए अपनी जान कुर्बान की।
कहां से हुई कारगिल के इस युद्ध की शुरूआत
3 मई को खबर आई कि एलओसी पार कर कुछ पाकिस्तानी घुसपैठिए हमारी सरहद में आ घुसे हैं। सच्चाई जानने की जिम्मेदारी 4 जाट रेजिमेंट को सौंपी गई। 14 मई को लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया के नेतृत्व में छह सैनिकों की एक टोही टुकड़ी रवाना हुई। लेकिन, भारी बर्फबारी और मुश्किल रास्तों के कारण वे उस दिन पोस्ट तक नहीं पहुंच सके। अगले दिन, 15 मई को, दोपहर करीब 3:30 बजे, जब वे पोस्ट के पास पहुंचे, तो अचानक दुश्मन की गोलीबारी शुरू हो गई। सौरभ और उनकी टीम ने बहादुरी से मुकाबला किया और बटालियन मुख्यालय को सूचना दी, लेकिन गोला-बारूद खत्म होने के कारण वे घिर गए है।
1997 में सेना में कमीशंड हुए थे कैप्टन अमित
कैप्टन अमित 1997 में वह भारतीय सेना में कमीशंड हुए और 4 जाट रेजिमेंट में शामिल हुए, जो सेना की सबसे पुरानी रेजिमेंट्स में से एक है। कैप्टन अमित की पहली पोस्टिंग पिथौरागढ़ में हुई, जहां उन्होंने अपने नेतृत्व और सूझबूझ से सबका दिल जीत लिया था। इसके बाद, उनकी पोस्टिंग कश्मीर के कारगिल सेक्टर के काकसर इलाके में हुई, जहां का कठिन इलाका और रणनीतिक महत्व उनके लिए नई चुनौती की तरह था।
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