तेलंगाना सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रखी स्पष्ट दलील
नई दिल्ली, 10 सितंबर 2025 – भारत के संघीय ढांचे में राज्यपाल की भूमिका पर चल रही बहस एक बार फिर तेज़ हो गई है। सुप्रीम कोर्ट में जारी सुनवाई के दौरान तेलंगाना सरकार ने साफ कहा कि सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह (Aid and Advice of Council of Ministers) को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
तेलंगाना का तर्क है कि राज्यपाल सिर्फ़ औपचारिक प्रमुख हैं और कार्यपालिका की असली शक्ति चुनी हुई सरकार में निहित होती है। अपवाद केवल तब बनता है जब किसी आपराधिक मामले में स्वयं मुख्यमंत्री या कोई मंत्री प्रत्यक्ष रूप से शामिल हो।
पृष्ठभूमि: राष्ट्रपति का विशेष संदर्भ (Presidential Reference)
यह मामला अनुच्छेद 143(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय में आया है। राष्ट्रपति ने न्यायालय से यह राय मांगी है कि –
- क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति विधानसभा से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने में अनिश्चितकाल तक देरी कर सकते हैं?
- क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसी स्थिति में समय-सीमा तय कर सकता है?
यह बहस तमिलनाडु केस के अप्रैल 2025 के फैसले से जुड़ी है, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल के पास “पॉकेट वीटो” यानी अनिश्चितकालीन रोक का अधिकार नहीं है।
तेलंगाना सरकार का पक्ष
तेलंगाना की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता निरंजन रेड्डी ने कहा:
- संवैधानिक दायरा सीमित है: अनुच्छेद 200 की भाषा से साफ़ है कि राज्यपाल स्वतंत्र विवेक से काम नहीं कर सकते।
- सिर्फ़ विशेष परिस्थिति में अपवाद: यदि किसी मुकदमे में मुख्यमंत्री या मंत्री स्वयं आरोपी हों, तब राज्यपाल को स्वतंत्र निर्णय का अधिकार हो सकता है।
- विलंब लोकतंत्र विरोधी है: बिलों या संस्तुतियों को रोककर रखना संवैधानिक दायित्व का उल्लंघन है और जनता की इच्छा की अनदेखी है।
अन्य राज्यों और विशेषज्ञों की राय
- कर्नाटक: वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा कि राज्यपाल एक टिटुलर हेड (औपचारिक प्रमुख) मात्र हैं और लगभग हर स्थिति में मंत्रिपरिषद की सलाह मानना उनका कर्तव्य है।
- पंजाब: अरविंद दातार का कहना है कि यदि राज्यपाल बिना कारण विधेयक रोकते हैं तो यह जनतंत्र की आत्मा पर आघात है।
- केरल: पूर्व अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने दलील दी कि राज्यपाल के पास विकल्प तो हैं (जैसे राष्ट्रपति के पास बिल भेजना या पुनर्विचार के लिए लौटाना), पर अंतिम जिम्मेदारी मंत्रिपरिषद की सलाह मानने की ही है।
न्यायालय का दृष्टिकोण: समय सीमा का प्रश्न
सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु केस में स्पष्ट किया था कि:
- राज्यपाल “जितना जल्दी संभव हो” (as soon as possible) कार्रवाई करें।
- सामान्यतः एक महीने से अधिक का विलंब अस्वीकार्य है।
- यदि किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजना हो या विशेष परिस्थितियाँ हों, तब भी अधिकतम तीन माह का समय उचित माना जाएगा।
इस संदर्भ में न्यायालय यह तय करेगा कि क्या भविष्य के लिए स्पष्ट समय-सीमा अनिवार्य की जानी चाहिए।
संवैधानिक महत्व
यह मामला केवल तेलंगाना या तमिलनाडु तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में राज्यपाल की भूमिका को परिभाषित करेगा। यदि सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य ठहराता है और समय सीमा तय करता है, तो यह भविष्य में केंद्र-राज्य टकरावों को रोकने में मदद करेगा।
तेलंगाना की दलील से यह बात उभरकर सामने आई है कि राज्यपाल संवैधानिक औपचारिकता के प्रतीक हैं, न कि राजनीतिक शक्ति के स्वतंत्र केंद्र।
सुप्रीम कोर्ट का आने वाला फैसला यह तय करेगा कि क्या भारतीय लोकतंत्र में राज्यपाल की भूमिका को और सीमित व पारदर्शी बनाया जाएगा या नहीं।