क्या यह रणनीतिक चूक होगी?
Bihar Politics: असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के महागठबंधन में शामिल होने की इच्छा से बिहार में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं. इससे मुस्लिम वोटों का बिखराव रुकेगा और महागठबंधन को फायदा हो सकता है।
हालांकि, ओवैसी के कारण महागठबंधन को लाभ की बात तो हो रही है, लेकिन एक बड़ा खतरा भी है जो पूरा सियासी सीन बदल सकता है और महागठबंधन को लेने के देने पड़ सकते हैं।
पटना. ”बीजेपी और सांप्रदायिक शक्तियों को बिहार से उखाड़ फेंकने के लिए हमने महागठबंधन में शामिल होने की इच्छा जताई है…”
एआईएमआईएम के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल इमान के इस एक बयान से बिहार की राजनीति में नई तरह की सरगर्मी है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या असदुद्दीन ओवैसी, राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के साथ एक मंच पर नजर आएंगे?
अगर ऐसा हुआ तो इसका परिणाम क्या होगा? क्या यह एनडीए के लिए नुकसानदायक होगा? या फिर क्या महागठबंधन को इसका फायदा होगा? लेकिन बिहार के इस बदलते राजनीतिक रणनीति के सिर्फ यही दो सवाल नहीं हैं, इसके साथ दो और सवाल जुड़ते हैं कि क्या बिहार में तीसरे मोर्चे की संभावना खत्म हो गई?
असदुद्दीन ओवैसी
साथ ही यह सवाल कि क्या वाकई में असदुद्दीन ओवैसी के आने से महागठबंधन को फायदा होने वाला है या फिर यह एक बड़ी रणनीतिक चूक होने वाली है? अइये इसके विस्तार से समझते हैं.
पहले जानते हैं कि असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम (AIMIM) ने वर्ष 2020 में सीमांचल की जिन 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था उसमें एआईएमआईएम को 14.3% वोट मिले थे।
जाहिर है कि यह विधानसभा चुनाव के लिहाज से बड़ा आंकड़ा है. यह मत प्रतिशत यह भी साबित करता है कि 2015 के चुनाव में जहां एआईएमआईएम 0.50% वोट प्राप्त किया था और कोई भी सीट नहीं जीत पाई थी, वहीं 2020 में 14% से अधिक मत ले आना अपने आप में बड़ा सियासी संदेश है।
AIMIM की एंट्री कितनी सहज?
एक आंकड़ा 2024 के लोकसभा चुनाव का भी है. जिनमें असदुद्दीन ओवासी की पार्टी ने आठ सीटों पर अकेले अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन सभी कैंडिडेट हार गए. हालांकि, पार्टी ने 4.5% वोट शेयर प्राप्त किया था. अब एआईएमआईएम के महागठबंधन के साथ आने को लेकर यही कहा जा रहा है कि मुस्लिम वोटों का बिखराव रुकेगा और इसका सीधा फायदा महागठबंधन को होगा। लेकिन, इसके साथ ही बड़ा सवाल यह कि पहले से ही 6 पार्टियों के महागठबंधन के एआईएमआईएम की एंट्री कितनी सहज होगी।
क्या बाकी दल अपने हिस्सों की सीटों को दांव पर लगाएंगे? यही नहीं क्या कांग्रेस और आरजेडी अपने कोटे से सीटें ओवैसी को देंगे? राजद का कहना है कि आने वाले समय में लालू यादव इसर फैसला लेंगे. जाहिर है निगाहें लालू यादव पर टिकी हैं कि वह क्या फैसला लेते हैं.
हिंदू-मुस्लिम का सियासी सीन
इतना ही नहीं इसके साथ सवाल यह कि सीमांचल के महत्वपूर्ण सीटों पर उनकी दावेदारी क्या महागठबंधन को मजबूर हो मंजूर होगी? इसके साथ ही राजनीति के जानकार सवाल उठाते हुए कहते हैं कि असदुद्दीन ओवैसी एक मुस्लिम चेहरा तो हैं, लेकिन वह इतने आक्रामक और कट्टर दिखते हैं कि महागठबंधन पर इसका उल्टा रिएक्शन भी हो सकता है।
दूसरी ओर समीकरण यह भी बनता है कि किशनगंज की 67 प्रतिशत मुस्लिम आबादी का ध्रुवीकरण हुआ तो यह तो महागठबंधन को बंपर फायदा होगा, लेकिन कटिहार में 38% मुस्लिम आबादी, अररिया में 32% और पूर्णिया में 30% मुस्लिम आबादी के ध्रुवीकरण के साथ अगर हिंदू आबादी कहीं गोलबंद हो गई तो इसका सीधा नुकसान महागठबंधन को होगा.
राजनीति के जानकार बताते हैं कि संभव है कि आने वाले समय में असदुद्दीन ओवैसी की आक्रामकता पर महागठबंधन लगाम लगाए. लेकिन, असदुद्दीन ओवैसी की आक्रामकता पर अगर लगाम लग गई तो यह भी निश्चित तौर पर मुस्लिम वोटरों पर असर करेगा और हो सकता है कि केंद्र की योजनाओं और नीतीश कुमार के चेहरे की बदौलत मुस्लिम समाज के सॉफ्ट माइंडेड लोग एनडीए की ओर भी आकर्षित हों।
तीसरे मोर्चे का क्या होगा?
- वहीं, एक समीकरण तीसरे मोर्चे को लेकर भी है. दरअसल, अभी लगभग सभी पार्टियां किसी न किसी गठबंधन से जुड़ी हैं. एनडीए में बीजेपी, जे़डीयू के अतिरिक्त एलजेपीआर, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा शामिल है।
- इसी तरह महागठबंधन में राजद, कांग्रेस, लेफ्ट और वाआईपी शामिल है. बीएसपी और AIMIM दो ऐसी पार्टियां हैं, जिनका बिहार के एक लिमिटेड इलाके में अपना जनाधार तो है, लेकिन ये किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं।