नदी में सिक्का डालने की परंपरा हिंदुस्तान में सदियों से चली आ रही है. लोग ऐसा करना शुभ मानते हैं और उनका मानना है कि इससे इच्छा पूरी होती हैं. लोगों की धार्मिक मान्याता के अनुसार, निर्मल नदियों में सिक्का डालना धन की देवी यानी मां लक्ष्मी की अनुग्रह प्राप्त करने से जोड़ा जाता है. हालांकि, इस रीति के पीछे एक वैज्ञानिक कारण भी है, जिसे वक़्त के साथ लोग भूल चुके हैं और धर्मशील नजरिए से ही इसे देख रहे हैं.
नदी में सिक्का डालने: प्राचीन समय में तांबे के सिक्के और उनका वैज्ञानिक महत्व
एक प्रतिवेदन के अनुसार, अब इसके पीछे के वैज्ञानिक इतिहास को देखा जाए तो प्राचीन काल में जो सिक्के प्रचलित थे, वे तांबे के बने होते थे. तांबा स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभदायक माना जाता है और इसका प्रयोग जल को शुद्ध करने के लिए भी किया जाता था.

आयुर्वेद में भी यह वर्णन मिलता है कि तांबे के बर्तन में रखा पानी शुद्ध हो जाता है और इससे कई बीमारी से बचाव होता है. अमेरिका पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (EPA) के मुताबिक, तांबा और पीतल जैसे धातुओं में पानी रखने से 99.9% कीटाणु समाप्त हो जाते हैं.
नदी में सिक्का डालने की परंपरा का बदलता मकसद
इसी कारण हमारे पूर्वज नदियों में तांबे के सिक्के डालते थे, ताकि जल शुद्ध बना रहे और उसका इस्तेमाल करने वाले लोगों को स्वास्थ्य लाभ मिले. उस समय यह परंपरा पानी को साफ और बैक्टिरिया मुक्त बनाए रखने का एक विधि था. लेकिन वक़्त के साथ इस परंपरा का असली मकसद धीरे-धीरे भुला दिया गया और इसे धार्मिक मान्यता से जोड़ दिया गया. आज जब तांबे के सिक्के प्रचलन में नहीं हैं और उनकी जगह स्टेनलेस स्टील व एल्यूमीनियम के सिक्के इस्तेमाल किए जाते हैं,

आस्था बनाम विज्ञान: सिक्के डालने की परंपरा और जल प्रदूषण
तब इस परंपरावाद का वैज्ञानिक लाभ भी समाप्त हो गया है.अब लोग इसे केवल आस्था के रूप में देखते हैं और यह मानते हैं कि नदी में सिक्का फेंकने से उनका भाग्य चमकेगा या उनकी मनथ पूरी होंगी.
लेकिन सच यह है कि आधुनिक सिक्कों का जल की शुद्धता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि यह जल प्रदूषण का कारण बन सकते हैं. इसलिए, यह अनिवार्य है कि हम इस रिवाज़ के पीछे के वैज्ञानिक मकसद को समझें और नदियों को स्वच्छ बनाए रखने के लिए प्रयास करें, न कि उन्हें और अधिक प्रदूषित करें.