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Breaking News: NATO: अरब ‘इस्लामिक नाटो’ योजना पर पड़ी रोक

Dhanarekha
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Breaking News: NATO: अरब ‘इस्लामिक नाटो’ योजना पर पड़ी रोक

कतर और यूएई ने रोका प्रस्ताव

दोहा: दोहा में 15 सितंबर को हुए अरब और इस्लामिक देशों के शिखर सम्मेलन में इजरायल(Israel) के हवाई हमलों की कड़ी निंदा की गई। हालांकि सुरक्षा सहयोग पर सबसे अहम प्रस्ताव तब विवादों में घिर गया जब मिस्र(Egypt) ने नाटो(NATO) की तर्ज पर संयुक्त अरब सेना बनाने का सुझाव रखा। कतर और संयुक्त अरब अमीरात ने इसे खारिज कर दिया। इससे बैठक का रुख बदल गया और क्षेत्रीय मतभेद खुलकर सामने आए

मिस्र का प्रस्ताव और नेतृत्व विवाद

मिस्र के विदेश मंत्री बद्र अब्देलती ने कहा कि 1950 की संयुक्त रक्षा संधि के तहत, नाटो(NATO) की तरह एक डिफेंस फोर्स गठित करने की योजना रखी गई थी। इस बल का उद्देश्य इजरायल से बढ़ते खतरों का सामना करना और सदस्य देशों को त्वरित सुरक्षा मुहैया कराना था।

लेकिन कतर और यूएई ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। दूसरी ओर सऊदी अरब और मिस्र में नेतृत्व को लेकर भी मतभेद उभर आए। सऊदी अरब कमान अपने हाथ में चाहता था, जबकि मिस्र का मानना था कि उसके सैन्य अनुभव को देखते हुए उसे नेतृत्व मिलना चाहिए।

ईरान-तुर्की पर विवाद और अमेरिकी दबाव

खाड़ी देशों ने ईरान और तुर्की को इस फोर्स का हिस्सा बनाने से इंकार कर दिया। इस वजह से सहमति नहीं बन सकी और मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फत्तह अल-सीसी नाराज होकर दोहा से लौट गए। मिस्र को उम्मीद थीकि गाजा के मुद्दे पर खाड़ी देश मजबूत कदम उठाएँगे लेकिन यह संभव नहीं हुआ।

विशेषज्ञों के मुताबिक, अमेरिकी प्रभाव भी इस असफलता की वजह बना। रिपोर्ट है कि सम्मेलन से पहले कतरी प्रतिनिधिमंडल वॉशिंगटन गया था और उन्हें भरोसा दिलाया गया कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को रोकेंगे। इसी आश्वासन के चलते कतर और यूएई ठोस फैसले लेने से पीछे हट गए।

कतर और यूएई ने प्रस्ताव क्यों रोका?

कतर और यूएई का मानना था कि इस्लामिक नाटो जैसी सेना क्षेत्रीय संतुलन बिगाड़ सकती है। साथ ही, वे अमेरिकी आश्वासनों पर भरोसा कर रहे थे कि इजरायल पर काबू रखने के लिए राजनयिक दबाव पर्याप्त होगा।

मिस्र को इस असफलता से क्या नुकसान हुआ?

मिस्र को उम्मीद थी कि उसकी पहल से उसे क्षेत्रीय नेतृत्व की मान्यता मिलेगी। लेकिन प्रस्ताव ठुकराए जाने के बाद न केवल उसका राजनीतिक प्रभाव घटा बल्कि गाजा के समर्थन में ठोस निर्णय न आने से उसकी रणनीति भी कमजोर हो गई।

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