मुर्शिदाबाद के धुलियान और जाफ़राबाद जैसे शांत माने जाने वाले इलाक़ों में कैसे हिंसा फूट पडा।धुलियान और जाफ़राबाद की हिंसा का ज्वालामुखी यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि एक सदी से भी ज़्यादा पुरानी सामाजिक समरसता को आखिर किसने और कैसे भंग कर दिया?
11 अप्रैल को वक़्फ़ संशोधन क़ानून के विरोध में हुआ प्रदर्शन, देखते ही देखते एक सुनियोजित हिंसा में बदल गया। यह सिर्फ़ एक भीड़ का विस्फोट नहीं था, बल्कि एक गहरी राजनीतिक और प्रशासनिक विफलता की परत भी इसके नीचे छिपी है।
राजनीतिक प्रायोजन या अनजाने हादसे?
हिंसा के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों का घटनास्थल पर पहुँचना, मुआवज़े की घोषणा और दोषियों पर कार्रवाई के दावे एक रटी-रटाई प्रक्रिया प्रतीत होते हैं। हरगोविंद दास की हत्या के बाद माकपा द्वारा उन्हें पार्टी एजेंट बताना और पारुल दास द्वारा इसका खंडन, राजनीति के इस खेल की एक बानगी भर है। पीड़ितों की पीड़ा को भी अब ‘राजनीतिक संदर्भ’ में तौला जाता है।
विरोध-प्रदर्शन का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है, लेकिन सवाल यह है कि जब आयोजकों को खुद पता नहीं था कि मजमा किसके नियंत्रण में है, तो ऐसी भीड़ को इकट्ठा करने की अनुमति कैसे दी गई? क्या यह सिर्फ़ लापरवाही थी या कोई साज़िश भी इस भीड़ में छिपी थी?
प्रशासन – देरी, असंवेदनशीलता और निष्क्रियता
पीड़ित दुकानदार राज कुमार बर्मन का यह कथन कि “पुलिस आई तो सही, मगर देर से और बहुत कम संख्या में,” प्रशासन की नाकामी की सीधी गवाही है। भीड़ दस हज़ार की और पुलिस दो-चार जवानों की — यह विषमता सिर्फ़ आंकड़ों की नहीं, बल्कि संवेदनशीलता की कमी को भी दर्शाती है।
पुलिस का दावा है कि सैकड़ों गिरफ़्तारियाँ हुई हैं, एसआईटी का गठन हो गया है, और सीमावर्ती इलाक़ों में नज़र रखी जा रही है। लेकिन यह सब उस समय क्यों नहीं हुआ जब हालात बिगड़ते जा रहे थे?
समाज – भरोसे का बिखराव
जाफ़राबाद की कावेरी कहती हैं, “अगर फ़ोर्स चली गई तो हम कैसे बच पाएँगे?” यह बयान किसी एक धर्म या समुदाय का नहीं, बल्कि एक साझा भय का प्रतीक है। हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों के लोगों ने अपने-अपने तरीके से इस हिंसा का खामियाज़ा भुगता है – किसी ने बेटे को खोया, किसी ने दुकान।
इस बार यह सिर्फ़ दुकानों और घरों की नहीं, बल्कि ‘भरोसे की आगज़नी’ थी। सालों से साथ रहते लोग अब एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे हैं।
क्या इस सबका चुनावी संबंध है?
राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं। क्या यह सब “राजनीतिक माहौल तैयार करने” का एक उपक्रम था? क्या सीमावर्ती इलाक़ों में तनाव पैदा कर, भावनाओं को भड़काकर वोटों का ध्रुवीकरण किया जा रहा है?
इन सवालों के जवाब सीधे न सही, लेकिन घटनाओं के सिलसिले और प्रतिक्रियाओं की दिशा बहुत कुछ संकेत देती है।
अब रास्ता क्या है?
एक बात साफ है — धुलियान की सड़कों पर जो कुछ भी हुआ, वह सिर्फ़ ‘क़ानून व्यवस्था की विफलता’ नहीं है, वह एक सामाजिक त्रासदी है। हिंसा से न सिर्फ़ इंसान मरे हैं, बल्कि इंसानियत घायल हुई है। और यह घाव मुआवज़े या गिरफ़्तारियों से नहीं भरेंगे।
सभी समुदायों को, स्थानीय नेतृत्व को, मीडिया को और खासकर प्रशासन को मिलकर एक ठोस योजना बनानी होगी जिससे भरोसा लौटे। वरना, यह डर और अविश्वास कभी भी फिर से हिंसा की शक्ल ले सकता है।