टॉर्च इंफेक्शन (TORCH Infection) एक ऐसी गंभीर बीमारी है जो गर्भावस्था के दौरान मां से नवजात शिशु में फैल सकती है और ब्रेन डैमेज, बहरापन या मौत का कारण बन सकती है। यह एक संक्षिप्त नाम है, जो टॉक्सोप्लाज्मोसिस (Toxoplasmosis), अन्य संक्रमण (जैसे सिफलिस), रूबेला (Rubella), साइटोमेगालोवायरस (CMV) और हर्पीस सिम्प्लेक्स वायरस (HSV) को दर्शाता है। भारत में गर्भवती महिलाओं में TORCH संक्रमण की व्यापकता 10-30% तक बताई जाती है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां स्वच्छता और जागरूकता की कमी है। यह संक्रमण मां में हल्के लक्षण दिखा सकता है, लेकिन शिशु के लिए घातक साबित होता है, जैसे मस्तिष्क की नसें फटना या अत्यधिक ब्लीडिंग।
UP, मऊ जनपद के चिरैयाकोट क्षेत्र की रहने वाली शीला लंबे समय से इसी टॉर्च इंफेक्शन से जूझ रही हैं। इस बीमारी की चपेट में उनके पहले दो बच्चे जन्म के कुछ दिनों बाद ही दम तोड़ चुके थे। शीला ने बताया कि वह पहले दो बार मां बनीं, लेकिन दोनों नवजात 8-10 दिन तक ही जीवित रहे। डॉक्टरों के अनुसार, संक्रमण ने उनके ब्रेन पर गहरा असर डाला था, जिससे नसें फट गईं और ब्लीडिंग से मौत हो गई।
यह उनका तीसरा बच्चा था। जन्म के तुरंत बाद जब परिजनों ने नवजात की हालत गंभीर देखी—बुखार, कमजोरी और असामान्य हलचल—तो वे घबराहट में मुहम्मदाबाद गोहना से मऊ जाने वाले मुख्य मार्ग पर स्थित केसरी राज हॉस्पिटल पहुंचे। यहां डॉ. सुमंत कुमार गुप्ता ने तुरंत बच्चे को भर्ती किया। डॉ. गुप्ता ने बताया, “बच्चा क्रिटिकल कंडीशन में था। हमने 11 दिनों तक लगातार निगरानी रखी, एंटीवायरल दवाएं दीं और विशेष देखभाल की। TORCH का असर ब्रेन पर पड़ता है, लेकिन समय पर इलाज से इसे कंट्रोल किया जा सकता है।”
आज 11 दिन बाद शीला की आंखों में खुशी के आंसू हैं। उन्होंने कहा, “मेरा बच्चा अब पूरी तरह सुरक्षित है। दूध पी रहा है, हाथ-पैर हिला रहा है और सामान्य बढ़ रहा है। भगवान और डॉक्टर साहब का शुक्रिया!” डॉ. गुप्ता ने चेतावनी दी कि गर्भावस्था से पहले TORCH स्क्रीनिंग जरूरी है। कच्चा मांस, बिल्ली के संपर्क या दूषित पानी से यह फैलता है। बचाव के लिए टीकाकरण, स्वच्छता और नियमित जांच ही एकमात्र रास्ता है।
विशेषज्ञों की राय:
उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में TORCH से नवजात मृत्यु दर अधिक है। एक अध्ययन के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में 83% मामले निम्न वर्ग से जुड़े हैं, जहां CMV और रूबेला सबसे आम हैं। सरकार को जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है, ताकि ऐसी त्रासदियां रुकें। शीला का केस उम्मीद की किरण है—समय पर इलाज से जिंदगियां बचाई जा सकती हैं।
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