श्राद्ध में तुलसी का धार्मिक महत्व
हिंदू धर्म शास्त्रों में श्राद्ध कर्म के दौरान तुलसी(Tulsi) दल के महत्व का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। मान्यता है कि तुलसी(Tulsi) की सुगंध से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं और भगवान विष्णु(Lord Vishnu) के लोक को चले जाते हैं। तुलसी दल से किया गया पिंडार्चन पितरों(Ancestors) को प्रलय काल तक संतुष्ट रखता है। पुराणों में कहा गया है कि जब पितर तुलसी(Tulsi) की सुगंध महसूस करते हैं, तो वे गरुड़ पर आरूढ़ होकर भगवान विष्णु के लोक को प्रस्थान करते हैं। यह दर्शाता है कि श्राद्ध में तुलसी(Tulsi) का उपयोग पितरों की आत्मा की शांति और मुक्ति के लिए कितना महत्वपूर्ण है।
श्राद्धकर्म से जुड़े आवश्यक नियम
श्राद्धकर्म के दौरान कुछ विशिष्ट नियमों का पालन करना अनिवार्य माना गया है। श्राद्ध क्रिया हमेशा दक्षिण दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। इसके लिए आसन का प्रयोग भी आवश्यक है, जिसमें कुशा का आसन सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यदि कुशा उपलब्ध न हो तो लकड़ी के पट्टे, ऊन (Tulsi)या रेशम का प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि लकड़ी के पट्टे में लोहे की कील न लगी हो। श्राद्ध में काले तिल का प्रयोग भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसे देव अन्न कहा गया है और इससे पितर संतुष्ट होते हैं।
श्राद्ध में वर्जित और प्रशस्त भोजन
श्राद्ध में कुछ खास तरह के अन्न और फल का उपयोग किया जाता है, जबकि कुछ को पूरी तरह से वर्जित माना गया है। वायु पुराण और अन्य धर्मग्रंथों के अनुसार, तिल, जौ, चावल, गेहूं, गाय का दूध, शहद, अंगूर और अनार जैसे अन्न-फल प्रशस्त माने गए हैं। वहीं, कोदो, चना, मसूर, मूली, काला जीरा, खीरा और कोई भी बासी या सड़ा हुआ भोजन श्राद्ध में पूरी तरह से निषिद्ध है। भोजन के लिए सोने, चांदी, कांसे और तांबे के पात्र उत्तम माने गए हैं, जबकि लोहे और केले के पत्ते का प्रयोग वर्जित है।
श्राद्धकर्म किस दिशा में मुख करके करना चाहिए और इसके लिए कौन सा आसन श्रेष्ठ है?
श्राद्धकर्म दक्षिण दिशा में मुख करके करना चाहिए, और इसके लिए कुशा का आसन श्रेष्ठ माना गया है।
श्राद्ध में किन बर्तनों का उपयोग करना चाहिए और किनका प्रयोग वर्जित है?
श्राद्ध में सोने, चांदी, कांसे और तांबे के बर्तनों का उपयोग उत्तम माना गया है, जबकि लोहे और केले के पत्ते का प्रयोग वर्जित है।
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