नई दिल्ली,। आधी आबादी को अपने पक्ष में करने का आसान तरीका राजनीतिक दलों ने अपनाया है। यही वजह है कि चुनावी सीजन में महिलाओं की बल्ले-बल्ले हो रही है।
दो साल में बढ़ी महिला कल्याण योजनाओं की संख्या
एक नई रिपोर्ट के अनुसार, अब तक 12 राज्यों ने महिलाओं के लिए बिना शर्त नकद हस्तांतरण योजनाएं शुरू की हैं, जबकि दो साल पहले यानी 2022-23 में ऐसे राज्यों की संख्या मात्र दो थी। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की इस ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, चालू वित्त वर्ष (2025-26) में ये राज्य मिलकर 1,68,050 करोड़ रुपये खर्च करेंगे, जो देश के (GDP) का लगभग 0.5 प्रतिशत है। दो साल पहले यह आंकड़ा 0.2 प्रतिशत से भी कम था।
चुनावी राज्यों में योजनाओं पर खर्च में तेज़ बढ़ोतरी
रिपोर्ट के मुताबिक, जिन राज्यों में आने वाले वर्ष में विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां इन योजनाओं पर खर्च में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है।
- असम में 31% अधिक राशि का आवंटन हुआ है।
- पश्चिम बंगाल में 15% की वृद्धि देखी गई है।
- झारखंड ने अक्टूबर 2024 में ‘मुख्यमंत्री मायन सम्मान योजना’ की राशि 1,000 से बढ़ाकर 2,500 रुपये प्रति माह कर दी।
आर्थिक दबाव के कारण कुछ राज्यों ने घटाई राशि
हालांकि आर्थिक दबाव बढ़ने पर कुछ राज्यों ने योजनाओं में कटौती भी की है।
- महाराष्ट्र सरकार ने अप्रैल 2025 में ‘मुख्यमंत्री लाडकी बहिन योजना’ की राशि 1,500 से घटाकर 500 रुपये कर दी, खासकर उन महिलाओं के लिए जो पहले से किसी अन्य लाभ योजना से राशि प्राप्त कर रही थीं।
- भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने चेतावनी दी है कि बढ़ती सब्सिडियों, ऋण माफी और नकद योजनाओं से राज्यों की आर्थिक स्थिति डगमगा सकती है।
राजस्व घाटे की स्थिति चिंताजनक
रिपोर्ट में कहा गया है कि 12 में से 6 राज्यों ने 2025-26 के लिए राजस्व घाटे का अनुमान लगाया है।
यदि नकद हस्तांतरण योजनाओं को हटाकर देखा जाए, तो कई राज्यों की वित्तीय स्थिति संतुलित दिखती है।
- कर्नाटक का राजस्व संतुलन 0.3% अधिशेष से गिरकर 0.6% घाटे में पहुंच जाता है।
- मध्य प्रदेश में अधिशेष 1.1% से घटकर केवल 0.4% रह जाता है।
हर दल की चुनावी रणनीति: महिला वोट बैंक
चाहे कर्नाटक (Karnatka) की ‘गृह लक्ष्मी’, मध्य प्रदेश की ‘लाड़ली बहना (Ladli Behna), महाराष्ट्र की ‘लाडकी बहिन’ या बिहार की ‘मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना’ हो — लगभग हर राजनीतिक दल महिलाओं को नकद सहायता देकर साधने में जुटा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि महिलाओं को सशक्त बनाने से ज्यादा यह योजनाएं चुनाव से पहले सीधा जुड़ाव बनाने की राजनीतिक रणनीति बन चुकी हैं।
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