नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी है कि राज्यपालों और राष्ट्रपति (Governors and President) के लिए राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा तय करना संवैधानिक व्यवस्था को बिगाड़ सकता है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से दायर लिखित दलीलों में केंद्र ने चेतावनी दी कि ऐसी समयसीमा शक्तियों के पृथक्करण के नाजुक संतुलन को नुकसान पहुंचाएगी और “संवैधानिक अव्यवस्था” पैदा कर सकती है।
क्या है मामला?
यह मामला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत भेजे गए 14 संवैधानिक प्रश्नों से जुड़ा है, जिन पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ 19 अगस्त 2025 से सुनवाई शुरू करेगी। केंद्र का तर्क है कि सुप्रीम कोर्ट का 8 अप्रैल 2025 का फैसला, जिसमें पहली बार राज्यपालों और राष्ट्रपति पर विधेयकों पर कार्रवाई के लिए बाध्यकारी समयसीमा लगाई गई थी, संवैधानिक ढांचे को कमजोर कर सकता है। केंद्र ने कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट की असाधारण शक्तियां भी संविधान में संशोधन या इसके निर्माताओं की मंशा को नजरअंदाज नहीं कर सकतीं।
नहीं होना चाहिए “अनावश्यक न्यायिक हस्तक्षेप”
सॉलिसिटर जनरल ने जोर देकर कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के पद “राजनीतिक रूप से निष्पक्ष” और “लोकतांत्रिक शासन के उच्च आदर्शों” के प्रतीक हैं। मेहता ने तर्क दिया कि विधेयक स्वीकृति प्रक्रिया में कुछ समस्याएं हो सकती हैं, लेकिन इन्हें राज्यपाल के उच्च पद को “अधीनस्थ” बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। उनका कहना है कि ऐसी चूकों का समाधान राजनीतिक और संवैधानिक तंत्रों के जरिए होना चाहिए, न कि “अनावश्यक न्यायिक हस्तक्षेप” से।
मुख्य न्यायाधीश भूषण आर गवई की अगुवाई में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर की पीठ इस मामले की सुनवाई करेगी। यह मामला संवैधानिक शक्तियों और शासन की स्वायत्तता पर गहरा प्रभाव डाल सकता है।
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