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टॉर्चर और एनकाउंटर को कितने पुलिसवाले मानते हैं सही रास्ता, नई रिपोर्ट से क्या जानकारी मिली?

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टॉर्चर और एनकाउंटर को कितने पुलिसवाले मानते हैं सही रास्ता, नई रिपोर्ट से क्या जानकारी मिली?

साल 2011 से 2022 के बीच 1100 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई है. यह आँकड़ा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का है. यही नहीं, इसके मुताबिक़, इन मौतों के लिए अब तक किसी को दोषी भी नहीं पाया गया है.

एक आम धारणा है कि हिरासत में संदिग्धों या अभियुक्तों के साथ हिंसा होती ही होगी.

लेकिन बड़ा सवाल ये है कि कितने पुलिसवाले हैं जो संदिग्धों या अभियुक्तों के ख़िलाफ़ हिंसा और हिरासत के दौरान टॉर्चर या यातना का इस्तेमाल करने में विश्वास रखते हैं?

यही जानने के लिए दिल्ली समेत 16 राज्यों में क़रीब 8,200 पुलिसवालों का एक सर्वेक्षण किया गया. इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट बीते मार्च में आई है.

रेड लाइन
  • भारत में पुलिस-व्यवस्था की स्थिति रिपोर्ट 2025: पुलिस प्रताड़ना और गैरजवाबदेही’ नाम की यह अध्ययन रिपोर्ट सामाजिक संस्था ‘कॉमन कॉज़’ और शोध संस्था ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़’ (सीएसडीएस) ने तैयार की है.

टॉर्चर का कितना समर्थन

इस अध्ययन में पाया गया कि दो-तिहाई पुलिस वाले यातना देने को उचित समझते हैं.

कुल 30 फ़ीसदी पुलिसकर्मी टॉर्चर करने को बहुत ज़्यादा हद तक सही मानते हैं तो 32 फ़ीसदी इसे कुछ हद तक सही मानते हैं. सिर्फ़15 फ़ीसदी ने ही यातना देने का बहुत कम समर्थन किया.

ऐसी राय रखने वाले ज़्यादातर कांस्टेबल और आईपीएस यानी सीनियर अफ़सर थे. यातना का सबसे ज़्यादा समर्थन झारखंड (50%) और गुजरात (49%) के पुलिस अफ़सरों में मिला और सबसे कम केरल (1%) और नागालैंड (8%) के अफ़सरों में.

रिपोर्ट कहती है, “ये एक चिंताजनक ट्रेंड नज़र आया कि पुलिस के सबसे ऊँचे दर्जे के अफ़सर, यानी आईपीएस अफ़सर, यातना का समर्थन करते हैं और क़ानून की प्रक्रिया को मानते नहीं हैं.”https://flo.uri.sh/visualisation/22576624/embed?auto=1

हिंसा का इस्तेमाल कितना सही

आरोपितों के साथ हिंसा और हिरासत में यातना का पुलिसवाले कितना समर्थन करते हैं, यह जानने के लिए सर्वे में उनसे अलग-अलग सवाल पूछे गए.

जैसे, जब उनसे यह पूछा गया कि समाज की भलाई के लिए संगीन अपराध के संदिग्धों के ख़िलाफ़ पुलिस द्वारा हिंसा का इस्तेमाल करना सही है या नहीं तो क़रीब दो-तिहाई पुलिस अफ़सरों ने इसका किसी न किसी रूप में समर्थन किया.https://flo.uri.sh/visualisation/22576744/embed?auto=1

थर्ड-डिग्री टॉर्चर को समर्थन

तीस फ़ीसदी अफ़सरों का यह भी मानना था कि किसी संगीन अपराध को हल करने के लिए ‘थर्ड-डिग्री’ टॉर्चर का इस्तेमाल करना सही है. तलवों पर मारना, अंगों पर मिर्ची पाउडर छिड़कना, अभियुक्त को उल्टा लटकाना जैसे यातना के तरीक़े ‘थर्ड डिग्री टॉर्चर’ के तहत आते हैं.

आईपीएस अफ़सर और वैसे पुलिसवाले जो संदिग्धों या अभियुक्तों से अक्सर पूछताछ करते हैं, वे ज़्यादातर थर्ड डिग्री टॉर्चर को उचित ठहराते हैं.https://flo.uri.sh/visualisation/22576930/embed?auto=1

‘एनकाउंटर’ से हत्या

22 फ़ीसदी पुलिस वालों का मानना है कि ‘ख़तरनाक अपराधियों’ को अदालती प्रक्रिया का मौक़ा उपलब्ध कराने से ज़्यादा असरदार है उन्हें मार देना या उनका ‘एनकाउंटर’ कर देना.

उनका मानना था कि इससे समाज का भला होगा. हालाँकि, 74 फ़ीसदी पुलिस वालों ने कहा कि पुलिस को उन्हें पकड़ना चाहिए और क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए.

रिपोर्ट में यह पाया गया कि “पुलिस अपने आप को क़ानून का प्रथम रखवाला मानती है, और उन्हें कोर्ट और कानूनी प्रक्रिया अड़चनें लगती हैं.”

एक-चौथाई से ज़्यादा या 28 फ़ीसदी अफ़सरों का मानना है कि क़ानूनी प्रक्रिया कमज़ोर है और अपराध रोकने में धीमी है. जबकि 66 फ़ीसदी का मानना है कि क़ानून में ख़ामियाँ हैं लेकिन फिर भी उससे अपराध रुकता है.

पुलिस

क़ानूनी प्रक्रिया अपनाने का मतलब है, अरेस्ट मेमो बनाकर दस्तख़त करवाना, गिरफ़्तार किए जाने वाले व्यक्ति के घर वालों को गिरफ़्तारी के बारे में बताना, मेडिकल जाँच करवाना इत्यादि.https://flo.uri.sh/visualisation/22579268/embed?auto=1

भीड़ की हिंसा का समर्थन कितना

पुलिसवालों के एक तबके का यह भी मानना है कि यौन हिंसा, बच्चे-बच्चियों के अपहरण, चेन छीनने और गो हत्या जैसे अपराध के लिए भीड़ द्वारा संदिग्धों को सज़ा देना सही है.

रिपोर्ट कहती है, “गुजरात के पुलिसकर्मियों में भीड़ की हिंसा के प्रति सबसे अधिक समर्थन देखा गया जबकि केरल के पुलिसकर्मियों में यह समर्थन सबसे कम था.”https://flo.uri.sh/visualisation/22580751/embed?auto=1

क्या अपराध का रिश्ता किसी समुदाय से भी है?

पुलिस वालों से यह भी पूछा गया कि उनके मुताबिक़, किस समुदाय के लोग स्वाभाविक रूप से ज़्यादा अपराध करने के आदी हैं.

इनमें ज़्यादातर का मानना था कि अमीर और शक्तिशाली लोगों में अपराध की प्रवृत्ति ज़्यादा है. इसके बाद मुसलमान, झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोग, प्रवासी वग़ैरह आते हैं.

जब इन आंकड़ों का धर्म के नज़रिए से विश्लेषण किया गया, तो पाया गया कि 19 फ़ीसदी हिंदू पुलिसकर्मियों का मानना था कि मुसलमान ‘काफी हद तक’ स्वाभाविक रूप से अपराध करने के आदी हैं, और 34 फ़ीसदी का मानना था कि वो कुछ हद तक अपराध करने के आदी हैं.

वहीं, 18 फ़ीसदी मुसलमान पुलिसकर्मियों का मानना था कि मुसलमान काफ़ी हद तक अपराध करने के आदी हैं, और 22 फ़ीसदी का मानना था कि वे कुछ हद तक अपराध करने का आदी हैं.

सबसे ज़्यादा दिल्ली और राजस्थान के पुलिसकर्मियों का मानना है कि मुसलमान स्वाभाविक रूप से अपराध करने के आदी हैं. वहीं, गुजरात के दो तिहाई पुलिस अफ़सर दलितों के बारे में ऐसी राय रखते ह

डेटा की कमी

रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि पुलिस हिरासत में मौत के सटीक आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) के पास अलग-अलग आँकड़े उपलब्ध हैं. साल 2020 में एनसीआरबी के मुताबिक़, 76 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई. वहीं, एनएचआरसी के मुताबिक़ 90 लोगों की.

पुलिस

सबसे ज़्यादा पुलिस कस्टडी में मौतें महाराष्ट्र और गुजरात में हुई हैं. एनएचआरसी के आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2023 में पुलिस एनकाउंटर में सबसे ज़्यादा मौतें उत्तर प्रदेश में हुई हैं.

रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक्र है कि सर्वेक्षण करने वालों को आशंका थी कि यातना के बारे में बात करने में पुलिस वाले संकोच करेंगे और शायद सही जवाब न दें.

इस रिपोर्ट को तैयार करने में राधिका झा की अहम भूमिका है.

उन्होंने बीबीसी हिंदी को बताया, “हम शुरू में इस विषय पर शोध करने से थोड़ा हिचकिचा रहे थे. ये विषय बड़ा विवादित है. हमें लगा था कि पुलिसवाले ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ जवाब देंगे. मगर यह हमारे लिए चौंकाने वाली बात थी कि किस हद तक पुलिस वाले हिंसा और ख़ासकर यातना का खुलेआम समर्थन करते हैं.”

रिटायर सीनियर पुलिस अफ़सर प्रकाश सिंह ने इस रिपोर्ट के बारे में अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा है कि इस अध्ययन के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं लेकिन कुछ अच्छी बातें भी हैं. जैसे, 79 फ़ीसदी पुलिस वालों का मानवाधिकार ट्रेनिंग और 71 फ़ीसदी अफ़सरों का यातना रोकने की ट्रेनिंग में विश्वास रखना.

उन्होंने ध्यान दिलाया है कि रिपोर्ट में एक गंभीर ख़ामी है.

इसमें उन कारणों पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है जो यातना के उपयोग में योगदान करते हैं. जैसे, अंग्रेज़ों के ज़माने से चलता आ रहा पुलिस का स्वभाव, नेताओं, सीनियर अफ़सरों द्वारा डाला गया दबाव और ‘शॉर्ट-कट’ उपायों के लिए जनता का समर्थन.

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